धर्म, काँटा

2014 का चुनाव जब शुरू हुआ तो नेताओं के साथ जनता के भी हौसले बुलंद थे। पिछले पांच सालों में मनमोहन सिंह की चौतरफा नाकामी से नाक में दम था। महंगाई मुंह बाए खड़ी, विफल नीतियों की लंबी होती लड़ी और ऊपर से भ्रष्टाचार के आरोपों की झड़ी। विकास की रफ्तार रुक गई थी। देश थम सा गया था। हर वर्ग बदलाव के लिए आतुर। इस आतुरता में जब मोदी उभरे तो एक धड़का सा हुआ पर फिर उम्मीदें आसमान पर बदले-बदले से सरकार नजर आते हैं। बदलाव की चाहत से फूले देश को मोदी ने अपनी बदली छवि दिखाई। विकासपुरुष बन गए। कहते हैं वेल बिगन इज़ हाफ डन। आरंभ शुभ तो आधा काम समझो हो गया। ऐसा आगाज हुआ जैसे जनता की आवाज हो गया हो। जाति, धरम के झगड़े से ऊपर उठकर देश को आगे ले जाने की बातें होने लगीं। अचानक देश सचमुच का इक्कीसवीं सदी में आ गया। मोदी तो मोदी बाकी सारे लोग भी एक सुर में विकास की बात करने लगे। अपने-अपने मॉडल दिखाने लगे। अपना वाला बढ़िया बताने लगे। पर राजनीति की दुम कभी सीधी हुई है जो रहती। आज जिधर देखिए जुबान आग उगल रही है। विकास कोने में दुबक गया है और मंच पर वही पुराने भूत नाच रहे हैं। अमित शाह बदलाव से ‘व’ मिटा गए। आजम खान देश के सैनिकों में मुसलमान ढूंढ लाए। सब इंसान से हिंदू और मुसलमान हो गए। हम वापस पिछली सदी का हिंदुस्तान हो गए।
यही धर्म का राजनीति में योगदान है। जनम-जनम के फेर में हम फिर उलझ गए। जन्म से जाति, जन्म से धर्म। विधर्मियों का खुला कुकर्म आज राजनीति का मर्म है। माहौल गर्म है। इसे गर्म रखा जाएगा जब तक राजनीति अपनी रोटियां नहीं सेंक लेती। जले तो जनता ये जान कर भी कि सब झूठ है। धर्म और जाति का आधार असल में कहां है। लोग कहते हैं मैं पैदाइशी हिंदू हूं या पैदाइशी मुसलमान हूं। अस्पताल में बदल गए बच्चे को कहां पता चलता है कि वो पैदाइशी क्या है। पैदाइशी तो सब इंसान होते हैं। कोई हिंदू मुसलमान होता ही नहीं। लगभग पांच साल की उम्र में बच्चे को लोग बता देते हैं कि वो क्या है। जो हिंदुओं के घर में पैदा हुआ वह हिंदू बता दिया जाता है। फिर भूगोल का भी कमाल है। अगर कोई बच्चा भारत में पैदा हुआ तो 80 प्रतिशत संभावना है कि वह हिंदू होगा। अगर पाकिस्तान में हुआ तो 92 प्रतिशत संभावना है उसके मुसलमान होने का। अगर सउदी अरब में तो 99 से 100 प्रतिशत संभावना है मुसलमान होने की। अगर आयरलैंड में पैदा हुए तो कैथोलिक और स्कॉटलैंड में तो प्रोटेस्टैंट। थाईलैंड-कंबोडिया में जन्मे तो बौद्ध। इसमें धर्म किधर है। जमीन पर जहां जो धर्म है वहां आदमी उस धर्म का घोषित हो जाता है। इस पर गर्व करने या ना करने की बात कहां से आ गई। पर आदमी से पूछिए तो वह बहुत विश्वास से कहता है कि वह पैदाइशी किस धर्म से है। उसका भगवान कौन है। एक है या अनेक हैं। सब सुना-सुनाया, बता-बताया। फिर उस सुने-सुनाए पर वह डरता है और डराता है। नियमों का पालन-उल्लंघन करता है। बड़ा होता है तो वही हो जाता है। आदमी से समाज, समाज से देश। फिर उस पर संबंध आधारित होते हैं। शिया, सुन्नी, जैन, बौद्ध, हिंदू, यहूदी। धर्म तो बदल सकते हैं। जाति तो बदल भी नहीं सकते। इसलिए कोई हिंदू धर्म स्वीकार भी ले तो हिंदू नहीं हो पाता क्योंकि हिंदू के भीतर क्या। ये लकीरें गहरी करते जाते हैं। फिर नेता आते हैं, उनमें बैठ जाते हैं। हमें लड़ाते हैं। शिया-सुन्नी का विभाजन होता है। कैथोलिक प्रोटेसटेंट की राजनीति होती है। हिंदुस्तान में धर्म हर तरह के हैं तो ज्यादा आसान है। धर्म के अंदर जातियों का विभाजन है। इस हद तक की इस्लाम के तौहीद का नारा कुंद है। मुसलमानों में भी जातियां बन गईं। या कहिए कि रह गईं।
अभी सब अमित शाह, आजम खान, मोदी, लालू को कोसते हैं पर जलेबी खुले में रखेंगे तो मक्खी तो आएगी ही। चूस के जाएगी ही। साथ में बीमारी मुफ्त। वोट ले जाएंगे। तकरार की बीमारी छोड़ जाएंगे। इस फैलते संक्रमण की जिम्मेदार मक्खी नहीं है। गलती आपकी है। एक दूसरे से दूरी बनाएंगे तो बीच में लोग एडजस्ट कर जाएंगे। फिर आपको तकलीफ होगी। ये एक खूबसूरत प्राकृतिक संयोग है कि आप किस धर्म को मानते हैं। खूब शान से मानिए। पर फर्क फिरकापरस्ती के मूल में है। फर्क रहेगा तो फिरकापरस्त रहेंगे। विकास से शुरू हुआ प्रचार जैसे विनाश की बातों में जा अटका, वैसे ही भविष्य को लटका रखा है सियासत ने। देश को आगे ले जाना बहुत मुश्किल है। पीछे लुढ़काना आसान। मुश्किल काम कौन करे। नेता आसान रास्ता ढूंढ लेते हैं। वो जनता की औकात जानते हैं। बकौल फैज जो बिगड़ें तो एक दूसरे से लड़ा दो।

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