पूरब से प्यार, सुविधानुसार।

सूरज पूरब में उगता है पर ठहरता नहीं है। पश्चिमी देशों को हम कितना गरियायें और ‘चलो भाग चलें पूरब की ओर’ गाएं पर ताकते तो पश्चिम की ओर ही हैं सूरजमुखी। पूरब के देशों और पश्चिम के देशों में फर्क यही है। पूरब के राज्यों को देख लीजिए। असम, बिहार, उड़ीसा, बंगाल, उत्तरपूर्व के सूबे। बहुत संपदा है पर पिछड़ापन पीछा ही नहीं छोड़ता। सभी पश्चिमोन्मुखी हैं रोजगार के लिए। उत्तर प्रदेश के भीतर भी पूरब और पश्चिम का यही फर्क है। पश्चिमी उत्तर प्रदेश की व्यवस्था भले वही हो पर अर्थव्यवस्था ठीक-ठाक है। पूर्वांचल पीछे छूट गया है। अब चूंकि चुनाव के वक्त गरीबों, पिछड़ों की याद नेताओं को बहुत सताती है, सभी पार्टियों की नजर पिछड़े पूरब पर है। पश्चिम से नरेंद्र मोदी अपना घर छोड़कर बनारस में बिराजे हैं। पूर्वांचल में 32 सीटें हैं और उनसे सटे बिहार के चालीस में से दस सीटों पर उसका साइड इफेक्ट है। पुरवा हवा चलती है तो पुराने चोट उभर आते हैं। इनको यहां अपनी हवा चलानी है। पिछड़ जाने की चोट को जगाना है और उसे आशा की नई घुट्टी पिलानी है।
एक अंग्रेज कह गए थे कि बनारस इतिहास और सभ्यताओं को छोड़िए, मिथकों से भी प्राचीन है। बाबा के प्राचीन घर में हर हर महादेव के साथ साथ घर घर मोदी के नए नारे लग रहे हैं। क्योंकि इस बार पूरब में कमल को खिलाना है, और मोदी जी को बनारस के रास्ते ही दिल्ली जाना है। ये अंदाज बनारस जितना ही पुराना है। मुलायम सिंह भी पश्चिमी उत्तर प्रदेश से पूर्वी उत्तर प्रदेश आ गए। मुसलमानों के दर्द जगा गए। आजमगढ़ से लड़ेंगे ताकि मोदी की हवा की हवा निकाल सकें। भाजपा और सपा दोनों पूरब को प्रगति का भरोसा दिला रहे हैं और चाह रहे हैं कि वोटर भरोसा करे पर उनको पूरब पर भरोसा नहीं है। मुलायम पश्चिम में अपने भरोसे के मैनपुरी से भी लड़ रहे हैं। मोदी गुजरात में भी खड़े रहेंगे। पूर्वी दिल्ली से पुरबिया नायक-गायक मनोज तिवारी भाजपा के उम्मीदवार हैं क्योंकि पूर्वांचल-बिहारियों को दिल्ली में भी इनके हिस्से पूर्वी दिल्ली है, जो पूरब की तरह खटता है पश्चिम वालों की फैक्ट्रियों में। हर चुनाव में उन्हें भी पटाया जाता है, पूरब की तरह।
ये तथ्य है कि पूरब के राज्य देश को बेहतरीन इंजीनियर देते हैं, अस्पतालों को डॉक्टर देते हैं, प्रशासनिक सेवाओं को अफसर देते हैं। ये सब मानते हैं कि लगभग शिक्षा के लिए जरूरी आधारभूत संरचना के अभाव में भी इन राज्यों की प्रतिभा अपना लोहा मनवाती है। ये भी सच है कि स्कूल भले संख्या में बढ़ गए हों, शिक्षा के स्तर में गिरावट ही आई है। फिर भी सरस्वती को पूजने वाले राज्यों से आने वाली प्रतिभाओं में गिरावट नहीं आई है। मेहनत के बल पर आगे बढ़ने वालों को यहां रोजगार नहीं मिलता और वह आगे बढ़ चुके राज्यों को और आगे बढ़ाने में योगदान देते हैं। जो पढ़ नहीं पाते वह रिक्शा खींचते हैं दिल्ली में, टैक्सी चलाते हैं मुंबई में। नोएडा और पुणे में झुग्गियों में रहकर अट्टालिकाएं बनाते हैं। कश्मीर से कन्याकुमारी को जोड़नेवाली सड़कों के निर्माण में बिहारी पसीने की असली कीमत ये देश कभी चुका नहीं पाएगा। फिर भी श्रम का सम्मान नहीं करने वाले मुल्क में उनको दुत्कार का सामना है।
जब बिहार एक होता था तो ये पंक्ति सब को रटा था: बिहार एक समृद्ध राज्य है जहां गरीब लोग रहते हैं। बंटवारे के बाद बालू और बाढ़ बच गया। झारखंड की छाती चीर कर खनिज निकाल ले गए रॉयल्टी देकर। पंजाब की जमीन पर सोना उगे तो पंजाब का, झारखंड में जमीन के नीचे सोना हो तो सिर्फ रॉयल्टी। कच्चा लोहा, कोयला यहां से भर कर जाते हैं और लोहे की नई फैक्ट्री अगड़े राज्यों में लगती है। बिजली ग्रिड से कहीं भी ले जाया जा सकता है पर कोयला ढो लेंगे, मजदूर भी यहीं के होंगे और बिजली की फैक्ट्री कहीं और लगेगी। उद्योग के स्रोत पर उद्योग नहीं लगे क्योंकि सब का बहाना था, बड़ी कंपनियों के हेडक्वार्टर नहीं खुले क्योंकि माहौल नहीं रहा। या तो माहौल बनाया नहीं गया, बिगड़ा तो सुधारा नहीं गया। आज जंगलों में बंदूक उग आए हैं। इतनी नाइंसाफियों के बाद विशेष दर्जा मांगने वालों के साथ डील की कोशिश होती है। मानो हक नहीं, भीख दे रहे हों। ये होता इसलिए है कि दिल्ली को दर्द नहीं होता, पूरब के दर्द से। इनके यहां कोई बेंगलुरू, कोई पुणे, कोई हैदराबाद नहीं बन पाया। इनको तकनीक और उद्योग के पंख नहीं लगे। पूरब से मालगाड़ियों में भरकर कोयला रोज पश्चिम की ओर जाता है, ताकि वहां की रातें रंगीन रहें। जैसे कोयला जाता है, वैसे एमपी जाते हैं। जिससे संसद भरता है, जो पूरब की फिक्र हर चुनाव में करता है। पूरब से प्यार हो जाता है हर चुनाव में। पूरब जवाब नहीं मांगता। सूरज की बेवफाई का शिकवा नहीं करता। उगते सूरज को नमस्कार करता है।

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