नए वित्तीय वर्ष की शुभकामनाएं।

आप सभी को नया साल मुबारक हो। पिछले हफ्ते ये कॉलम आ नहीं पाया पर देर आयद तो दुरुस्त आयद। नए वित्तीय वर्ष की शुभकामनाएं। असली नया साल तो यही है। हिंदू कैलेंडर के मुताबिक नया वित्त वर्ष दीपावली की लक्ष्मी पूजा से होता है पर अंग्रेजी कैलेंडर है अंग्रेजी जमाना है। पर एक बात गौर करने लायक है कि नए वित्त वर्ष के पहले दिन ही मूर्ख दिवस मनाया जाता है, क्योंकि वित्त की व्यवस्था ऐसी है कि बाकी 364 दिन अनुमान पहली अप्रैल को ही मिल जाता है। मूर्ख दिवस से शुरु इसलिए होता है क्योंकि नया वित्तीय वर्ष आपको माल देने के लिए नहीं है। यह तो बस माल लेने की शुरुआत का दिन है। इसका मर्म यही है कि कर्म करिए और कर चुकाइए। इसके पीछे की कहानी भी अजीब है।
हुआ यूं कि यूरोप के लोग जूलियन कैलेंडर मानते थे जो सूरज के साथ चल नहीं पाता था। सूरज के साल से 10 दिन छोटा था। वह फिर उसे हर कुछ साल में एडजस्ट करने लगे। उनका नया साल और नया वित्तीय साल दोनों 25 मार्च को शुरु होते। फिर ये घपले वाले कैलेंडर को पोप ग्रेगरी ने बदल डाला। नया कैलेंडर ग्रेगरियन कैलेंडर कहलाया जिसमें उन्हें दस के बदले एक दिन ही एडजस्ट करना होता है। हर चार साल में फरवरी में एक दिन बढ़ा देते हैं, आज तक काम चल रहा है। पर चूंकि अंग्रेज बहादुर प्रोटेस्टेंट ठहरे, वे तब रोम के कैथोलिक पोप के टोप को नहीं मानते थे। वे जूलियन पर चलते रहे। पर वक्त से आदमी कितना लड़े। 1752 में अंग्रेजों ने वक्त के सामने घुटने टेक दिए। घोषणा कि कि 4 सितंबर के बाद सीधे 15 सितंबर आएगा, दस दिन एडजस्ट हो जाएगा और उस दिन से हम नए कैलेंडर के साथ हो लेंगे। लोग भड़क गए कि हमारी जिंदगी के दस दिन कैसे कम कर सकते हो। टैक्स भी कम कर दीजिए। जो दिन हम ने जिए नहीं उसके लगान क्यूं दें। बड़ी मशक्कत से माने। नया साल नए कैलेंडर के मुताबिक १ जनवरी को शुरू हुआ। टैक्स के साल पर सहमति बनी पर दस दिन देने पड़े। ब्रिटेन में नया वित्तीय वर्ष 25 मार्च की बजाय अप्रैल में शिफ्ट हो गया। वहां छह तारीख को होता है, हमारे यहां एक से ही। 31 मार्च को पिछले साल का एकाउंट बंद। पहली से नया एकाउंट शुरू।
हम उनके गुलाम थे। ये वाला नया साल उनकी बही में बिल्कुल सही बैठा। नई फसल कट जाती थी, लगान का अनुमान आसान हो गया था। तो उन्होंने हमें भी अप्रैल वाला फूल दिया। फूल और फ़ूल में नुक्ते भर का फर्क है। हम आजाद हो गए पर वह जैसा एडजस्ट कर गए, वैसे ही हैं। उन्होंने ही हमको एक टैक्स का सिस्टम दिया। हमने उनके सिस्टम को और मजबूत किया। टैक्स पर टैक्स लगाए, उस पर सरचार्ज सटाया। अभी सब कुछ इतना उलझ गया है कि आम आदमी खुद से गणना नहीं कर पाता। उसको सरल करने का मामला कई बार उठा पर सरल फार्म से आगे नहीं बढ़ पाया। कुछ सरल नहीं कर पाए तो फार्म का नाम सरल कर दिया ताकि सरल ना होते हुए भी भोगी को सरल का एहसास हो। आजकल टीवी पर एक विज्ञापन आता है जो डराता है कि हमको सबकुछ पता है। दूसरा ललचाता है कि देश में चमचमाती सड़कें, स्कूल और अस्पताल चाहिए तो टैक्स भरना आपका कर्तव्य बनता है। देशभक्ति की भी भावना जगाते हैं ताकि आप अपनी जेब कुर्बान कर सकें। पर अगर आप गाड़ी खरीद लें तो सबसे पहले जीवन भर के लिए रोड टैक्स। फिर सड़क पर ले आए तो टोल टैक्स। सरकारी अस्पताल ढहे नहीं तो अस्पताल रहे नहीं। चमचमाती तो छोड़िए, मक्खियां भिनभिनाती मिलेंगीं। जो चमचमाती हैं, वह निजी हैं और बहुत बिजी हैं। आप अगर अंदर आ गए तो फिर बहुत हल्के होकर बाहर जाएंगे। जो स्कूल खुल रहे हैं वह पारा शिक्षकों पर आधारित शिक्षा दे रहे हैं। उनको वेतन भी नहीं मिल पा रहा। जो निजी टाइप के हैं वह निजी हैं। फिर आपका आयकर कर क्या रहा है? देश की सुरक्षा में लगे जवानों के पास हथियार नहीं। आंतरिक सुरक्षा में लगी पुलिसबल के पास संख्याबल नहीं। बिजली तो अव्वल आती नहीं। आती है तो उसके दाम देते हैं। अगर इनमें से किसी की गारंटी नहीं तो फिर कर किधर जाता है। सरकारें कहती हैं कि बहुत कम लोग आयकर देते हैं। जो वेतनभोगी हैं वही इसके भुक्तभोगी हैं। सरकारें ये नहीं बतातीं कि गरीबों का टैक्स कहां जाता है। महंगाई बढ़ने से बढ़ा टैक्स तो सभी देते हैं। आदमी अपने औकातानुसार जो खरीदता है, उस पर सेल्स टैक्स तो लगता ही है। अप्रत्यक्ष ही सही पर कर तो है। अप्रत्यक्ष की मार प्रत्यक्ष से ज्यादा है क्योंकि प्रत्यक्ष में पता है कितना कटा। अप्रत्यक्ष में तो पता भी नहीं कि जेब कितनी कटी। नई सरकार से यह सवाल पूछना बनता है अधिकतम खुदरा मूल्य में मूल कितना है, और झोल कितना। अंग्रेजों का दिया वित्तवर्ष चलेगा पर उनकी अपारदर्शिता नहीं चलनी चाहिए।

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